You can access the distribution details by navigating to My Print Books(POD) > Distribution
लोक में गीत का विविधवर्णी वितान तानने वाली विधा ही लोकगीत है। इसका लालित्य बड़ा ही चितचोर होता है। कीर्ति की, कुल की, काल की, कमनीयता की, करुणा की, कौशल की, कल्पना की, कार्पण्य की, कुटिलता की, विलासिता की, दीनता की- न जाने कितनी अनगिनत कलाओं की इन्द्रधनुषी आभा इस लोकगीत की शिराओं में रुधिर संचार करती है। प्रस्तुत कृति ’चोंचिया पसरले चिहुँकि बोलै पपिहा’ मेरे भावलोक का वह इक्षुदंड है जिसके पोर पोर की रसार्द्रता इसकी गाँठ-गाँठ में समा गयी है। है तो यह रचना ’लोकगीत’ किन्तु सच कहें तो यह ’गीतलोक’ है। इसमें गाँव की पगली गुजरिया भोरहरी में नंगे पाँव बधार घूम आती है, भरसाँय में दाना भुँजवाती है तो लफंगों का लोला भी मलिया देती है। इसमें चन्दा सूरज की जुगल जोड़ी आकाश के तराजू में रत्न बनकर झूल जाती है तो विदा होती बिटिहिनी ओहार उठाकर भइया के गाँव को असीसती है। सुगना-मयनवाँ भारत भूमि की परिक्रमा करने के लिए पंख पसार कर उड़ पड़ते हैं तो ’मोरे पिछुअरिया सघन बँसवरिया में’ विविध चिरई-चूरुमन चहकते हैं, चहलकदमी करते हैं। कमल गुलाब की परस्पर होड़ा-होड़ी होती है तो ऋतुएँ राग-रंग में डूबकर मतवाली हो जाती हैं। अनेक रंगों की रंगोली से सजी हुई यह रचना अपने गाँव की परिक्रमा करने में खूब रमी है, अपने विशद व्योम को भर आँख निहारी है और अपनी प्रकृति की गोदी में खूब ठुनकी है, मचली है।
Currently there are no reviews available for this book.
Be the first one to write a review for the book चोंचिया पसरले चिहुँक बोले पपिहा.