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लोक में गीत का विविधवर्णी वितान तानने वाली विधा ही लोकगीत है। इसका लालित्य बड़ा ही चितचोर होता है। कीर्ति की, कुल की, काल की, कमनीयता की, करुणा की, कौशल की, कल्पना की, कार्पण्य की, कुटिलता की, विलासिता की, दीनता की- न जाने कितनी अनगिनत कलाओं की इन्द्रधनुषी आभा इस लोकगीत की शिराओं में रुधिर संचार करती है। प्रस्तुत कृति ’चोंचिया पसरले चिहुँकि बोलै पपिहा’ मेरे भावलोक का वह इक्षुदंड है जिसके पोर पोर की रसार्द्रता इसकी गाँठ-गाँठ में समा गयी है। है तो यह रचना ’लोकगीत’ किन्तु सच कहें तो यह ’गीतलोक’ है। इसमें गाँव की पगली गुजरिया भोरहरी में नंगे पाँव बधार घूम आती है, भरसाँय में दाना भुँजवाती है तो लफंगों का लोला भी मलिया देती है। इसमें चन्दा सूरज की जुगल जोड़ी आकाश के तराजू में रत्न बनकर झूल जाती है तो विदा होती बिटिहिनी ओहार उठाकर भइया के गाँव को असीसती है। सुगना-मयनवाँ भारत...
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