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दिगम्बर साव ने साल 1958 से 1994 तक भारतीय रेलवे के साउथ-ईस्टर्न डिविजन में सेवा की थी। इस दौरान वे दक्षिणी बिहार (अब झारखण्ड) से लेकर उड़ीसा तक विभिन्न स्टेशनों- ज्यादातर छोटे- पर तैनात रहे। यह इलाका आदिवासी बहुल तथा खनिज-सम्पदा से समृद्ध है। यहाँ की यादों को संजोते हुए उन्होंने अपनी यह आत्मकथा लिखी है।
इसके अलावे, जिस अड़ुआपाड़ा नामक गाँव में उनका जन्म हुआ था तथा बचपन बीता था, वहाँ की भी बहुत-सी यादें हैं। विभाजन के बाद यह गाँव पूर्वी पाकिस्तान (अब बाँग्लादेश) में चला गया था। इसके बाद बेलघरिया (प. बँगाल) में बीते कैशोर्य की तथा बरहरवा (झारखण्ड के सन्थाल-परगना में) में बीते यौवन की कुछ यादें भी इस आत्मकथा में समाहित है।
कुल-मिलाकर, जीवन के प्रायः हर रस, हर रंग का समावेश इसमें है- कहीं हर्ष है, तो कहीं विषाद; कहीं संघर्ष है, तो कहीं सुख-चैन।
लेखन-शैली प्रवाहमयी है, आत्मकथा रोचक है।
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