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श्रीगोवर्द्धनमठ - पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित जगद्गुरु - शङ्कराचार्य स्वामी निश्चलानन्दसरस्वती - महाभाग - विरचित ‘विकाश -विमर्श (विकास-विमर्श)' नामक यह ग्रन्थ श्रीगोवर्द्धनमठ - पुरीपीठसे प्रकाशित १२४वाँ पुष्प है। इसके अध्ययन और अनुशीलनसे यह तथ्य उद्भासित होता है कि चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्ड जिस चित्प्रकाश सर्वाश्रय सर्वेश्वरका स्फुरणरूप विकाश है, उसे आत्मीय और आत्मरूपसे वरणीय समझकर तदर्थ जीवनका उपयोग और विनियोग वास्तव विकाश है; न कि बहिर्मुखता और विषयलोलुपताकी पराकाष्ठाका नाम वास्तव विकाश है। यह सृष्टि सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वेश्वरकी अभिव्यक्ति है; अत: इसमें उसकी अनुगति है। विविधता तथा असच्चिदानन्दरूपताके कारण जगत् विषम तथा सदोष है; जबकि अद्वितीय सच्चिदानन्दरूपताके कारण इसमें अनुगत ब्रह्म सम तथा निर्दोष है। अत एव ब्रह्मकी वरणीयता सिद्ध है और उसमें मनोनिवेश कर्त्तव्य है। जन्ममृत्युकी अनादि अजस्रपरम्परारूप संसृतिचक्रके विलोपकी यह निगमागमसम्मत स्वस्थविधा है।
वस्तुके अस्तित्वका साधक तथा उसकी उपयोगिताका उद्दीपक धर्म है। धर्मविहीन अर्थका पर्यवसान अनर्थ है और धर्मविहीन कामका पर्यवसान परिताप है; जब कि धर्मसम्मत अर्थका पर्यवसान स्वस्थ - सुपुष्ट - अनासक्त सार्थक जीवन है तथा धर्मसम्मत कामका पर्यवसान स्थिर आह्लाद है।
दिव्य गन्धसम्पन्न पृथ्वी, दिव्य रससम्पन्न जल, दिव्य रूपसम्पन्न तेज, पुण्य स्पर्शसम्पन्न वायु और पुण्य शब्दसम्पन्न आकाशको विकृत, दूषित तथा कुपित (क्षुब्ध) करनेके प्रकल्पोंको विकास सिद्ध करना अनर्गल प्रयास है। मृत्यु, अज्ञान और दु:खके अपहारक वास्तव चाहके विषय सत्, चित् तथा आनन्दस्वरूप जीवनधन जगदीश्वरमें अनास्था उत्पन्न करनेके प्रकल्पोंको अर्थात् मानवजीवनकी अपूर्वताके विलोपको विकास सिद्ध करना जघन्य अपराध है। तद्वत् मानवोचित न्यायोपार्जित विधासे जीवनयापनको असम्भव करनेके प्रकल्पोंको विकास सिद्ध करना दु:साहसमात्र है। अत एव दूषित पर्यावरण,नास्तिकता तथा महँगाई-रहित विकासको सनातन शास्त्रसम्मत-विधासे परिभाषित तथा क्रियान्वित करनेकी नितान्त आवश्यकता है।
ध्यान रहे; तत्त्वदर्शी महर्षियों और मुनियों द्वारा दृष्ट और प्रयुवत कृषि, भवन, शिक्षा, रक्षा, न्याय, वाणिज्य, विवाह, यज्ञ, दान, तप, देवार्चन, अग्निहोत्रादि लौकिक तथा पारलौकिक उत्कर्षके साधनोंको परिष्कृत और क्रियान्वित करनेमें हम अवश्य ही अधिकृत हैं; परन्तु कृषि तथा यज्ञादिसे सम्बद्ध सनातन विज्ञानका परित्याग कर मन:कल्पित नवीन उद्भावना और प्रयोगका आलम्बन लेने पर विकासके स्थानपर विनाशका पथ ही प्रशस्त कर सकते हैं । उन प्राचीन वैदिक महर्षियोंके बताये हुए उपायोंका इस समय भी जो श्रद्धापूर्वक भलीभाँति आचरण करता है, वह सुगमतासे अभीष्ट फल प्राप्त कर लेता है । परन्तु जो अज्ञानी उनका अनादर करके अपने मन:कल्पित उपायोंका आश्रय लेता है, उसके सब उपाय और प्रयत्न पुन:-पुन: निष्फल होते हैं। अत एव सनातन वैदिक आर्यपरम्पराप्राप्त कृषि, जलसंसाधन, भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, रक्षा, सेवा, न्याय, चिकित्सा, यातायात, उत्सव - त्योहार, विवाह, देवसंस्थानादिका देश, काल, परिस्थितिके अनुरूप बोध और उपयोग ही सर्वहितप्रद और सुखप्रद है।
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