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सार्थ पंचदशी (eBook)

अनुबन्ध, मुलश्लोक, अन्वयार्थ एवं स्वामी वासुदेवानंदकृत हिंदी भावार्थ मज्जिरी टिका के साथ
Type: e-book
Genre: Religion & Spirituality
Language: Hindi
Price: ₹300
(Immediate Access on Full Payment)
Available Formats: PDF

Description

ૐ नमो ब्रह्मादिभ्यो ब्रह्मविद्यासम्प्रदाय कर्तृभ्यो। वंषर्शिभ्यो महö्याो। नमो गुरुभ्यः। सर्वोपप्लवरहितः। प्रज्ञानघनः।
प्रत्यगर्थो। ब्रह्मैवाहमस्मि। ब्रह्मैवाहमस्मि।।
सदाषिव समारम्भान् षंकराचार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे गुरुपरम्पराम्।।
यह मनुश्य जीवन हमे परमात्माके अनुग्रहसे प्राप्त हुआ है। हमने पहले अनेक जन्मोंमे बहुत कुछ
पुण्यमय कर्म किये होंगे, भगवानकी बहुत आराधना भी की होगी उसका ही परिणाम प्राकृतिक सौन्दर्यसे
परिपूर्ण यह मानव देह हमे वरदानके रूपमे मिला है। मनुश्य देहके जैसा परिपूर्ण देह इस धरापर अन्य कोई भी
देह नही है।
हम भी इस सृश्टिके प्रारम्भसे लेकर आजतक उन अन्यान्य अनन्त देहोमे अनन्त बार कीट, पतंग,
पषु, पक्षी आदि योनियोंमे चक्कर लगाकर आये है। और उन सब योनियोमें हमे केवल चार ही चिजे मिली
थी- भोजन, निद्रा, मैथुन और दुसरोंसे भय।
लेकिन यह मनुश्य जीवन इन चारोंको पाकर ही सन्तुश्ट नही हो सकता। क्योंकि इसके पास जो यह
बुद्धि है वह एक परमात्माका दिया हुआ महान वरदान है। इसीके कारण यह मनुश्य देह उन सब देहोंसे
अत्यन्त श्रेश्ठ है। बुद्धिके कारण ही मनुश्य उन चारोंसे उपर उठकर विकास कर सकता है। आजतक इस धरापर
हम जो कुछ भी विकास देख रहे है वह सब इस मानवी बुद्धिकी ही किमया है। इस बुद्धिमे अनन्त ष७ि है।
उसका अन्त लगाना प्रायः असम्भव ही है।
इस सृश्टिमे दृष्यादृष्य जो कुछ भी है उसको पकडनेकी इस बुद्धिमें क्षमता है। इस सृश्टिकी प्रत्येक चिज बुद्धि
पकड सकती है किन्तु उसे निर्माण नही कर सकती। मनुश्य की बुद्धि इतनी दुर्बल भी है कि वह एक तृणका
तिनका भी निर्माण नही कर सकती। इस सृश्टिको निर्माण करनेकी दैवी कला केवल इस सृश्टिके सर्जकके पास
ही है। इसलिये ही वह महेष्वर है। और इस नष्वर सृश्टिसे अलग है। यह सृश्टि केवल जाननेके लिये ही है,
इसे जानो और इनसे विर७ हो जाओ। इस सृश्टिमे आप नूतन कुछ भी निर्माण नही कर सकते। और यह
सुश्टि भोगनेके लिये भी नही है। सृश्टिको भोगनेका मतलब है स्वयंका विनाष करना। सृश्टिको जानकर उससे
जागना है, उसे भोगना नही।
अतः मनुश्यको चाहिए कि वह इसकी नष्वरताको जानकर ईष्वरकी षरणमे आवे। इस अन्तहिन
सृश्टिका अन्त लगानेका प्रयासकर अपना मूल्यवान जीवन व्यर्थ न गवाॅकर उस अनन्तकी षरणमे जाएॅ।
अषाष्वत सृश्टिको नष्वर जानकर षाष्वत ईष्वरकी षरणमे जाये। लेकिन यह बहुत ही कठीण मार्ग है।
सर्वप्रथम तो सांसारिक भोगोंसे वैराग्य होना ही कठीण है। और उसके बाद इस मायावी संसारमे उस ईष्वरको
पानेकी जिज्ञासा होना और भी कठीण है।
यदाकदा संसारसे वैराग्य हो भी जाय और ईष्वरको पानेकी जिज्ञासा भी जाग जाय किन्तु उसको
पानेका सही मार्ग मिलना भी अत्यन्त दुर्लभ ही है। उस ईष्वरकी कृपा होवे तो ही ईष्वरका साक्षात्कार हो
सकता है। ‘‘ईष्वर अनुग्रहादेव पुंसां अद्वैत वासना’’ अन्यथा नही।
इस परमार्थ मार्गपर आनेके बाद परमात्माका साक्षात्कार करा देनेवाले अनेक लोग मिलते है। और वे
साधकको अन्यान्य प्रलोभनोके द्वारा अपनी अपनी तरफ आकर्शित करनेका प्रयत्न करते है। यह अबोध साधक
जब इनके जालमे एकबार फॅस जाय, तो उससे निकलना बडा ही कठीण हो जाता है। उसका पूरा जीवन उसी
अन्तहीन डबरेमे समाप्त हो जाता है।
इस धरापर जीवनका यथार्थ दर्षन करानेवाला केवल वेदान्त दर्षन ही है। वेदोंका जो सार है वह
वेदान्तदर्षन कहलाता है। ‘‘वेदान्तो नाम उपनिशत्प्रमाणम्’’ उपनिशदोंको वेदान्त कहते है। और उपनिशदोंका सार
श्रीमöगवद्गीता है। सभी उपनिशद और गीताका प्रत्येक मन्त्र परब्रह्मपरमात्माका ही साक्षात्कार कराते है इसका
निर्णय ब्रह्मसूत्रमे किया गया है। और वह परब्रह्मपरमात्मा मै ही हूॅ। यह ‘‘अहं ब्रह्माऽस्मि’’ इस यजुर्वेदीय
महावाक्यसे बताया गया है। ‘‘जीवो ब्रह्मैव नापरः’’ यह वेदान्तका निर्णय है। उपनिशदका प्रत्येक मन्त्र इसके इर्द
गिर्द घुमता रहता है। इन तीन ग्रन्थोंको ही प्रस्थानत्रय कहते है। (गीता, उपनिशद्, ब्रह्मसूत्र)। जिस साधकको
परमात्माका साक्षात्कार करना है उसे ये तीन ग्रन्थ गुरूमुखसे श्रवण करना अनिवार्य ही है। इन तीनोको न
पढकर यदि कोई आत्मसाक्षात्कार करनेका दावा करता है तो वह सन्देहास्पद ही है। ऐसा मेरा (लेखकका)
अनुभव है।
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ज्ञानका श्रवण गुरूमुखसे ही होना चाहिये। और वे गुरू श्रोत्रिय, ब्रह्मनिश्ठ और कृपाळु होना चाहिये। वे
आचार्य परम्परासे जुडा होने चाहिये। इस संसारमे अद्वैत साक्षात्कार करानेवाले भगवद्पूज्यपाद षंकराचार्य जैसा
अन्य गुरू कौन हो सकता है?। हमारा परम सौभाग्य है कि हमे इस पावन परम्पराका आश्रय मिला है।
हमारी इसी परम्परामे हमारे पूर्वज स्वामी विद्यारण्यमुनिजी एवं उनके गुरू स्वामी श्रीभारतीतीर्थजी हुए।
इन्होने वेदान्त षास्त्रको यथार्थ समझनेके लिये पन्द्रह प्रकरणोंका ‘पंचदषी’ नामक प्रकरण ग्रन्थ लिखा है। इसमे
‘सच्चिदानन्द परमात्मा’ की अतीव सुन्दर व्याख्या की गयी है। इसमे सत्, चित् एवं आनन्दकी प्रत्येककी पाॅच
प्रकरणोंमे व्याख्या की गयी है। इसका अध्ययन करनेके बाद साधकको ‘‘जीव, ईष्वर, जगत् और ब्रह्म’’ इन
चारोंका स्पश्ट ज्ञान हो जाता है। इसका अध्ययन करनेके अनन्तर संसारको देखनेकी साधाककी दृश्टि ही बदल
जाती है। इसलिये सच्चे जिज्ञासुको इन ग्रन्थोंका आश्रय लेकर अपना जीवन कृतकृत्य करना ही चाहिये। मनुश्य
जीवनमे आकर एक बार इसे अवष्य ही पढना चाहिये।
इस ग्रन्थके रचयिताके विशयमे दो षब्द
विद्यारण्य स्वामीका जन्म (ई.स.1295) को कर्नाटकमे हुआ था। उनका पूर्वनाम माधवाचार्य था। इनको
जगदम्बाने प्रत्यक्ष दर्षन दिया था। ये वेदान्तके बहुत बडे प्रकाण्ड विद्वान् थे। इनकी ख्याती ऐसी थी कि लोग
इनको सर्वज्ञ कहते थे। ‘सर्वज्ञः स हि माधवः’। इनके पिताजीका नाम ‘मायण’ और माताजीका नाम ‘श्रीमती’
था। इनका गोत्र भारद्वाज था, षाखा याजुंशी थी और सूत्र बौधायण था। माधवाचार्यके ‘सायण’ और ‘भोगनाथ’
ये दो कनिश्ठ बन्धु थे। ये तीनो विद्वान थे। सायणने तो वेदोंपर भाश्य लिखा है। भोगनाथ ने बालपणमे ही
सन्न्यास लिया था। और इनका ही नाम श्रीभारतीतीर्थ हुआ। इस परिवारमे सभी लोग परम विद्वान् हुए है।
श्रीमाधवाचार्यजीके विद्यागुरू तीन थे- श्रीविद्यातीर्थ, श्रीभारतीतीर्थ और श्रीकण्ठजी।
उस समय श्रृंगेरी मठके षंकराचार्य स्वामी षंकरानन्दजी थे। इन्होने ही भगवद्गीतापर ‘षंकरानन्दी’
टीका लिखी है। इन्होने ही माधवाचार्यको सन्न्यास दिक्षा देकर उनका नाम विद्यारण्य रखा। ये षंकरानन्दजी
विद्यारण्य मुनिके संन्यास दीक्षागुरू थे। इन्होंने विद्यारण्य स्वामी को श्रृंगेरी मठके षंकराचार्यपदके सिंहासनपर
स्थापित किया। इसलिये मंगलाचरणमे विद्यारण्यजी अपने गुरूको प्रणाम करते हुए कहते है- ‘नमः
श्रीषंकरानन्द’।
श्रीविद्यारण्य मुनि वेदान्त विद्याके बहुत बडे अधिकारी महापुरूश थे। हम सभीपर कृपा करनेके लिये
इन्होने ही अपनी उमरके 85 वे सालमे पंचदषीको लिखना प्रारम्भ किया। लेकिन ये प्रथम छः प्रकरण ही
लिख पाये, बादमे इनका (इ.स.1386) मे षरीर षान्त हुआ।
उसके बाद षेश बचा हुआ ग्रन्थ अर्थात अग्रिम नौ प्रकरण तृप्तिदीपसे लेकर विशयानन्दतक
विद्यारण्यजीके विद्यागुरू श्री भारतीतीर्थजीने पूर्ण किया। ये अपने षिश्यका ब्रह्मविद्यामे क्या अधिकार है इससे
परिचित थे।
अपने षिश्यकी अप्रतिम कृतिको देखकर गुरूको आनन्द हुआ और हम सबपर अनुग्रह करनेके लिये
उन्होने इस षेश प्रकरणोंको बडे ही प्रयत्नसे हम जिज्ञासुओंके समक्ष प्रस्तुत किया। मार्गका षुभारम्भ षिश्यने
किया और पूर्णता गुरूजीने की। परम्पराका यही लाभ होता है। परम्परामे आरम्भ किया हुआ कोई भी
पारमार्थिक कार्य अधुरा नही रहता।
यह ग्रंथ आचार्यकी परिपक्व श्रवण, मनन, निदिध्यासन एवं तत्त्वंपदार्थषोधनरुप साधनाके द्वारा उन्हे आया हुआ
एक दिव्य अनुभव है। इस पंद्रह प्रकरणवाले प०चदषी नामक ग्रन्थमे अन्यान्य ढंगसे ईष्वरको और
आत्मस्वरूपको खोजनेका यषस्वी प्रयत्न किया गया है।
यह प्रकरण ग्रन्थ है, इस ग्रन्थको पढनेके अनन्तर अध्यात्मज्ञान प्राप्तीके जिज्ञासुके प्रायः समस्त
प्रष्नांेका निरसन होकर साधक एकाग्र होते हुये अपनी आत्माकी दिव्य अनुभूतीकी यात्राके लिये प्रस्थान करता
है। पंचदषीका अध्ययन किये विना आत्मसाक्षात्कार असंभव है, ऐसा मुझे लगता है।
पंचदषी यह प्रकरण ग्रन्थ है और परमात्म प्राप्तिका एक द्वार है। पराषरोपपुराणमे प्रकरण ग्रन्थकी व्याख्या
इसप्रकार की है-
‘‘षास्त्रैकदेषसम्बन्धं षास्त्रकार्यान्तरे स्थितम्। आहुः प्रकरणं नाम ग्रन्थभेदं विपष्चितः।’’ (18.2.22)
षास्त्रके किसी एक अंषका प्रतिपादन करनेवाले, तथा जरूरत पडनेपर अन्य षास्त्रोंके भी उपयोग अंषको
ग्रहण करनेवाले, ग्रन्थभेदको विद्वान लोग प्रकरण ग्रन्थ बोलते है। इसको पढनेके अनन्तर ही जिज्ञासु प्रस्थानत्रयी
(गीता, उपनिशद् एवं ब्रह्मसूत्र) मे प्रवेष करनेका अधिकारी हो जाता है।
(वेदान्त) उपनिशदके मुख्य विशयोंको इस ग्रन्थमे श्रुति, यु७ि, एवं अनुभूतीके व्दारा साधकके समक्ष
रखा है। यही इसके प्रतिपादनकी विषेशता है।
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अतः स्वयंका कल्याण करनेके इच्छुक प्रत्येक मनुश्यको चाहिये कि इस प०चदषीको पढकर अपना जीवन
कृतकृत्य करे। वेदान्तका सिद्धान्त परमाद्वैत परब्रह्म परमात्माको केन्द्रमे रखकर इस ग्रन्थकी रचना कि गयी है।
अतः इसको पढकर अपनी बुद्धिको सत्कार्यमे लगाये।
मुझे इस ग्रन्थका तीन बार अध्ययन करनेका अवसर मिला। ‘वारकरी षिक्षण संस्था आलन्दीमे’
‘कैलास आश्रम ऋशिकेशमे’ स्वामी मुक्तानन्दजीने पढाया और ‘चिन्मय सान्दीपनी आश्रम सिद्धवाडी’ हिमाचल
प्रदेषमे स्वामी सुबोधानन्द सरस्वती (गुरूजी) ने पढाया। तीन बार अध्ययन होनेसे मेरे हृदयमे यह ग्रन्थ
असंन्दिग्ध रूपसे बैठ गया है।
तीनो बार मेरे पास वेदान्त केसरी श्री वै. पं. दत्तात्रय वासुदेव जोग महाराज लिखित सार्थ पंचदषी थी। उसके
बाद ऋशिकेशमे स्वामी स्वतन्त्रानन्द गिरिजी महाराजकी पव्म्दषी हाथमे आयी। और उसके बाद चिन्मय मिषनमे
स्वामी षंकरानन्दजीके द्वारा लिखित पंचदषी हाथमे आयी। इन तीनो पंचदषीयोंको समक्ष रखकर आत्मानुसंधान
मै करता रहा। इसपर प्रवचन भी चल रहे थे।
मै जब कोल्हापूर आश्रममे था तब मेरे संन्यास दिक्षा गुरू प.पू. स्वामी पुरूशोत्तमानन्द सरस्वतीजीने भी
कोल्हापूरमे पंचदषी षीबिर लिया था। हम दोनो रातको उनकी कुटीयामे बैठकर पंचदषीपर चर्चा करते थे। तब
उन्होंने मुझे कहा था कि तुम इस पंचदषी ग्रन्थपर लिखान करो। (मुझे मेरे गुरूदेवने प्रस्थानत्रयीपर भी चिन्तन
लिखनेके लिये कहा है अतः मुझे वह भी लिखना है)।
ऋशिकेषके कैलासमे, नेपाली अन्नक्षेत्रमे, षिवानन्द आश्रममे, आलंन्दीमे स्वामी विद्यानन्दगिरीजी
महाराजसे मैने प्रस्थानत्रयपर अश्टादषाह प्रवचन सुने थे। आलन्दीके अश्टादषाह प्रवचनमे स्वामीजीका सान्निध्य
बहुत नजदीकसे मिला था। उस समय उन्होंने भी कहा था कि आप भी अश्टादषाह किया करो। उनकी प्रेरणासे
मैने भी पंचदषीपर दो बार कानर्दा जि. जलगाॅव मे बीस दिन और पंढरपूर जि. सोलापूरमे दस दिन सम्पूर्ण
पंचदषीके दो षीबीर लिये।
इससे मुझे भी और हमारे श्रोताओंको भी बडा आनन्द आया। बहुत सारे श्रोताओने मुझे कहा कि आप जो
ग्रन्थ पढते है वह हमारे पास भी होना चाहिये। मुझे आनन्द हुआ। मैने सद्गुरूके आषीर्वादसे उपर्यु७ तीन
ग्रन्थोंको दर्पणके समान समक्ष रखकर अपने आनन्दके लिये, अपने अन्तःस्थ अज्ञानका नाषकरनेके लिये इस
ग्रन्थका चिन्तन करना और लिखना प्रारम्भ किया।
एक दिन अकस्मात हमारे प्रिय जलगाॅव निवासी श्री सुरेषराव जावळेजीका फोन आया कि स्वामीजी
आपके द्वारा लिखा हुआ पंचदषीग्रन्थ लिखना पूर्ण हुआ हो तो बताईये, मेरे सुपुत्र श्री चेतनजी जावळे उस
ग्रन्थको प्रकाषीत करके देना चाहते है। यह मेरे गुरूदेवकी कृपा समझकर मुझे बहुत ही आनन्द हुआ। श्री
चेतनजीको इस पंचदषीको चेतन बनानेकी प्रेरणा उन्होने ही दी, ऐसा मे मानता हूॅ। अन्यथा कोई इसे प्रकाषीत
करके देगा यह मेरे मनमे भी नही था। मै इस जावले परिवारको हृदयसे धन्यवाद देता हूॅ और परमपिता
परमात्मासे प्रार्थना करता हुॅ कि इस पंचदषीका जो अज्ञानकी निवृत्ति और परमानन्दकी प्राप्तिरूप यह परमफल
है, वह इस जावले परिवारको अनायास ही प्राप्त होवे। इत्योम्।
श्रीगुरूपरम्परानुरागी
स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती
(वासुदेव सान्दीपनी आश्रम, निमगाॅव, जि.बुलडाणा.)

About the Author

स्वामीजीका अल्प परिचय
जन्मः ई.स. 28 आॅक्टोबर 1966, कोजागीरी पौर्णिमाके दिन ईच्छापूर, ता. नान्दुरा. जि. बुलडाणा मे
हुआ। घरमे पारमार्थिक संस्कार होनेके कारण बाल्यावस्थामे ही परमात्माको पानेकी जिज्ञासा जाग गयी।
रामविजय, हरिविजयादि ग्रन्थ पढकर मुझे लगा कि भगवान श्रीकृश्णके जैसे मै भी किसी सान्दीपनी आश्रममे
जाकर प्रस्थानत्रयको सिखकर परमात्माको प्राप्त करू। श्रीसंत गजानन महाराज संस्थान षेगावमे जानेके लिये
प्रयत्न किया किन्तु सफल नही हुआ। किन्तु दिनांक ई.स.1981 चैदह सालकी उमरमे ही परमात्माकी खोजमे
वारकरी सन्त श्री ह.भ.प. भगिरथ महाराज के साथ निकल पडा।
तदनन्तर आळंदीमे दिनांक- 1984 को जोग महाराज ‘‘वारकरी षिक्षण संस्था’’ आळंदी जि. पुणे मे
प्रवेष किया। और वहाॅपर विचारसागर, पंचदषी, ज्ञानेष्वरी आदि संत साहित्यका अध्ययन किया। उसके बाद
हरिद्वार, ऋशिकेष, गंगोत्री और उत्तर काषीमे रहा। कैलास आश्रम ऋशिकेषमे बहुत संतोका सान्निध्य मिला एवं
पाणीनीय अश्टाध्यायी व्याकरण, तर्कसंग्रह, पंचदषी, न्यायमुक्तावली, सिद्धान्त कौमुदी आदि ग्रन्थ पढनेका
अवसर मिला। प्रस्थानत्रयपर कैलास आश्रमके महामण्डलेष्वर स्वामी विद्यानन्दगिरीजीके मुखारविन्दसे
अश्टादषाहका अध्ययन करनेका भी अवसर मिला।
तदनन्तर उत्तरकाषीमे गया वहाॅपर कुछ ब्रह्मचारीयोंने ‘चिन्मय सान्दीपनी आश्रम सिद्धबाडी’ का पता
दिया। तब बडे ही सौभाग्यसे 1989 को हिमाचल प्रदेषके जि. कांगडा, सिद्धवाडीमे स्थित ‘‘चिन्मय सान्दीपनी
आश्रम’’ मे प्रवेष किया। वहाॅपर प.पू. गुरूजी (स्वामी सुबोधानन्दजी) के सान्निध्यमे ढाई सालतक वेदान्तषास्त्र
‘‘प्रस्थानत्रय’’ का अध्ययन करनेका सौभाग्य मिला। यह समय मेरे जीवनका स्वर्णिम समय था। उसके अनन्तर
दि. 8/10/1991 को पवई आश्रम मुम्बईमे प.पू.गुरूदेव (स्वामी चिन्मयानन्द सरस्वतीजी) ने नैश्ठिक ब्रह्मचारी
दीक्षा दी। उसी समय मेरा ‘ब्रह्म. अनन्त चैतन्य’ यह नाम हुआ। उसके बाद चिन्मय मिषनमे अलग अलग
जगहपर जैसे तीर्थराज प्रयाग, नाषिक, कोल्हापूर, जलगांव आदि आश्रमोंमे रहकर वहाॅसे पूज्य गुरूदेवके
कार्यके लिये भारतमे बहुत जगह गीता, उपनिशद, पंचदषी, रामायण और भागवत आदि ग्रन्थोंपर ज्ञानयज्ञ
करनेके लिये भ्रमण किया।
मार्च 2003 महाषिवरात्रीके षुभ अवसरपर परम पूज्य स्वामी पुरूशोत्तमानन्द सरस्वतीजी महाराजने
सन्न्यास दीक्षा ‘‘चिन्मय सान्दीपनी आश्रम’’ कोल्हापूर दी। तब से इस देहका ‘‘स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती’’
यह नाम हुआ। अब मेरा अध्ययन और अध्यापन यह गुरूदेवका कार्य उनकी ही आज्ञासे एवं उनके पावन
आषीर्वादसे ‘वासुदेव सान्दपनी आश्रम’ निमगाॅव जि. बुलडाणामे अनवरतरूपसे चल रहा है। इत्योम्।

Book Details

ISBN: 9789384766238
Publisher: PARAM Publication, Nashik India.
Number of Pages: 373
Availability: Available for Download (e-book)

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सार्थ पंचदशी

सार्थ पंचदशी

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